हिंदी पत्रकारिता दिवस: एक कलम, एक क्रांति

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हर साल 29 मई, हम हिंदी पत्रकारिता दिवस के रूप में उस ऐतिहासिक दिन को याद करते हैं जब भारत में पहली बार हिंदी में समाचार पत्र प्रकाशित हुआ—‘उदन्त मार्तण्ड’। यह केवल एक पत्र की शुरुआत नहीं थी, बल्कि विचारों की आज़ादी, जन-जागरण और भाषाई गर्व की क्रांति थी।

‘ उदन्त मार्तण्ड’ से शुरू हुई कलम की यात्रा


1826 में कलकत्ता से प्रकाशित ‘उदन्त मार्तण्ड’ के संपादक पंडित जुगल किशोर शुक्ल थे। उनका सपना था कि आम भारतीय, जो अंग्रेजी या फारसी नहीं जानता था, अपनी ही भाषा में समाचार पढ़े, समझे और समाज की हलचलों से जुड़ा रहे।यह एक साहसिक कदम था—राजनीतिक दबाव, आर्थिक तंगी और तकनीकी सीमाओं के बावजूद उन्होंने पत्रकारिता को जनभाषा में लाने का बीड़ा उठाया।

हिंदी पत्रकारिता: जनसंवाद से जनक्रांति तक


स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिंदी पत्रकारिता ने एक नायक की भूमिका निभाई। ‘प्रभा’, ‘प्रताप’, ‘हिंदुस्तान’, ‘आत्मोदयी’, ‘कर्मवीर’ जैसे समाचार पत्रों ने केवल खबरें नहीं दीं, बल्कि जनमानस को झकझोरा।महात्मा गांधी ने स्वयं ‘हरिजन’ पत्र निकाला, वहीं गणेश शंकर विद्यार्थी ने पत्रकारिता को सामाजिक परिवर्तन का हथियार बनाया।

डिजिटल युग में नई उड़ान


आज हिंदी पत्रकारिता प्रिंट से आगे बढ़कर वेबसाइट्स, ऐप्स, यूट्यूब चैनल्स और पॉडकास्ट्स तक पहुँच चुकी है। भारत की 50% से अधिक जनसंख्या हिंदी भाषी है, और यही कारण है कि डिजिटल मीडिया में हिंदी कंटेंट की मांग तेजी से बढ़ रही है।

कुछ प्रेरणादायक बदलाव:


ग्रामीण भारत की आवाज बनते स्थानीय पत्रकार

डेटा आधारित रिपोर्टिंग में हिंदी पोर्टलों की भागीदारी

जलवायु, शिक्षा, महिला सशक्तिकरण जैसे विषयों पर संवेदनशील कवरेज

आज की चुनौतियाँ


परिवर्तन के साथ चुनौतियाँ भी आई हैं

सनसनी फैलाने की होड़ में तथ्य की अनदेखी

ट्रोलिंग और सेंसरशिप का दबाव

स्वतंत्र विचारों पर अंकुश लगाने की कोशिशें

जमीनी मुद्दों की जगह ग्लैमर की प्रधानता

इनके बावजूद कई पत्रकार चुप नहीं हुए—वे आज भी गाँवों की मिट्टी, खेतों की बदहाली और समाज की अनकही कहानियाँ सामने ला रहे हैं।

नमन है उन कलमकारों को…
जो सत्ता से नहीं डरते,
जो जनपक्ष में खड़े रहते हैं,
जो हर शब्द से सच लिखते हैं,
जो अपनी भाषा को गर्व से जीते हैं।

हिंदी पत्रकारिता दिवस सिर्फ पत्रकारों के लिए नहीं है—यह हम सबका उत्सव है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि जब भाषा अपनी होती है, तो पत्रकारिता भी ज्यादा सच्ची लगती है।

आइए, इस 29 मई को हम सब मिलकर कहें:
“सच्ची पत्रकारिता ज़िंदा है — और हिंदी में है”

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