कोलकाता: पश्चिम बंगाल में आगामी विधानसभा चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने अपनी राजनीतिक रणनीति में बड़ा बदलाव किया है। लंबे समय तक चुनावी सभाओं में गूंजने वाले ‘जय श्रीराम’ नारे की जगह अब ‘मां काली’ और ‘मां दुर्गा’ की आराधना और नाम की गूंज सुनाई देने लगी है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह बदलाव बंगाली अस्मिता को साधने और भाजपा की “बंगाली-विरोधी” छवि को तोड़ने की कोशिश है।
रणनीति में बदलाव की झलक
भाजपा की इस नई दिशा का संकेत हाल ही में राज्य में हुए आयोजनों और नेताओं के बयानों से मिला:
- दुर्गापुर में एक जनसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण की शुरुआत मां काली और मां दुर्गा के नाम से की।
- सभा के आमंत्रण पत्र में भी मां काली का उल्लेख किया गया था।
- विपक्ष के नेता सुवेंदु अधिकारी ने पीएम मोदी को मां दुर्गा की मूर्ति भेंट की।
- भाजपा प्रदेश अध्यक्ष शमिक भट्टाचार्य ने मां काली के मंदिर में माथा टेका और उनके अभिनंदन समारोह में मां काली की तस्वीर पर माल्यार्पण किया गया।
‘जय श्रीराम’ नारे से नहीं मिला फायदा
भाजपा ने वर्ष 2021 के विधानसभा चुनाव में ‘जय श्रीराम’ नारे को प्रमुख चुनावी हथियार बनाया था। लेकिन नतीजों में पार्टी को अपेक्षित सफलता नहीं मिली:
- विधानसभा चुनाव में भाजपा को केवल 77 सीटें मिलीं।
- 2019 के लोकसभा चुनाव में 18 सीटें जीतने के बाद 2024 में यह आंकड़ा 12 तक गिर गया।
राजनीतिक विश्लेषण: ‘बंगाली अस्मिता‘ की अहमियत
राजनीतिक विश्लेषक बिश्वनाथ चक्रवर्ती के अनुसार, तृणमूल कांग्रेस ने भाजपा को “गैर-बंगाली और उग्र हिंदुत्ववादी” पार्टी के रूप में प्रचारित किया है। भाजपा अब इस छवि को तोड़ने की कोशिश कर रही है और बंगालियों की संस्कृति और धार्मिक आस्था से जुड़ने का प्रयास कर रही है। मां काली और मां दुर्गा बंगाली समाज के धार्मिक व सांस्कृतिक केंद्र में हैं।
राजनीतिक बयानबाजी
- टीएमसी प्रवक्ता कुणाल घोष ने भाजपा पर तंज कसते हुए कहा,
“यह भाजपा की संकीर्ण राजनीति है। जब जय श्रीराम से फायदा नहीं हुआ तो अब मां काली का नाम लेने लगे। बंगाल की जनता इस झांसे में नहीं आएगी।” - भाजपा नेता शमिक भट्टाचार्य ने सफाई दी,
“यह नई बात नहीं है। बंगाल में हिंदू सदियों से मां काली, मां दुर्गा की पूजा करते आए हैं। स्वयं भगवान राम ने रावण वध से पहले मां दुर्गा की पूजा की थी।”
भाजपा की यह नई रणनीति आगामी चुनावों में कितनी कारगर होगी, यह तो वक्त बताएगा। लेकिन यह साफ है कि भाजपा अब धार्मिक प्रतीकों के चयन में भी बंगाली अस्मिता को ध्यान में रखकर आगे बढ़ रही है। ‘जय श्रीराम’ से ‘मां काली’ की ओर यह बदलाव न सिर्फ चुनावी रणनीति है, बल्कि बंगाल की संस्कृति से जुड़ने का राजनीतिक प्रयास भी।